पितृसत्ता की बेड़ियों में जकड़ा प्यार
यह सब सहसा शुरु हुआ
उसने उसकी आँखों में देखा
पलके झुकाई, ज़रा मुस्कुराइ,
फिर ज़रा शर्माई ||
प्यार का सफर, उन्होंने संग किया तय
आशा थी की
वे आनंद के आकाश में ऊँचे उड़ चले,
प्यार की नदी को खुशियो की तैराकी से पार करे,
एक दूसरे के लिए बारिश में धूप ले आये,
दर्द के काँटों में फूल की बरसात कर पाए||
तूने ये छोटे कपड़े क्यू पहने है,
ये फोन में नंबर किसका है,
इधर मत जाना, उससे बात मत करना,
ए आईना बता इसे, इसका तराजू में क्या तौल है,
क्या ये बहुत मोटी है, या कुछ ज्यादा ही तिनके के समान है,
स्नेह जैसे पावन भाव को, उसने तो जिस्म से आंक लिया
उस गहरे समुद्र का पानी , फिर छलक के बाहर गिरा,
वह तो चिड़िया थी खुले आसमां की,
बंदिशों मे कहाँ आने वाली थी,
बिना पंख फैलाये,
उन्हे समेटने कहाँ वाली थी,
औरते तो होती है पुरुषो की कटपूतली
बिना तर्क के बना दी जाती है मजबूरी
इनकी पतंग सी ऊँची उड़ानों को,
इनके होंसले, जज़्बातों को,
इनके इर्भय निडर इरादों को,
जकड़ लिया है पितृसत्ता के ठेकेदारों ने
बुरी नज़रों से देखना, बलात्कार से लेकर वैवहिक बलात्कार कोई मज़ाक नही,
औरतों को वस्तु समझना सभ्यता का राग नही,
पलक झपकते ही वो प्यारा स्वप्न आँखों से ओझल होगया
उस प्रेम के सावन के बाद फिर पतझड़ होगया
फिर ज़रा उस भयंकर स्वप्न को तोड़ा,
वो लड़की कहती है.....
तुम इतने पास आ जाओगे यह नहीं सोचा था,
पास आकर यू दूर चले जाओगे यह नहीं सोचा था,
दोस्त बनकर मिले अजनबी बनकर चले गए ,
जाते-जाते यु रुला जाओगे यह नहीं सोचा था ||
ये आखरी पंक्तिया उन समाज के परेगामियों के लिए जो कभी किसी बेटी को, प्रेमिका को, पत्नी को, बहु को एक वस्तु के समान समझते है...
ये बंदिशें ये बेड़ियाँ
तुझे ना रोक पाएंगी,
इरादों को शमशीर कर
ये खुद ही टूट जाएँगी ।
सर झुके थे, सर झुकेंगे
फ़िर से तेरे सामने,
थी मज़ाल कब किसी की
तुझे झुका दे अपनी शान में ।
कर बलंद हाँस्लो को
तोड़ दे इन बंदिशों को
एक नयी राह पे ...
तु चली चल, तु चली चल ||
🔥 impactful
ReplyDeleteSuperb neha👍👍✨✨❤️❤️
ReplyDeleteThank you
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